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एक डाकू, जो कल तक लोगों को लूटता था और उसी लूट की राशि से अपने परिवार का पालन पोषण करता था, लेकिन जब उसे मालूम हुआ कि उसके इस पाप में उसके परिजन भागीदार नहीं होंगे तो उसकी आंखें खुली और वह डाकू पाप के मार्ग को छोड़कर साधु बन गया और बाद में दुनिया में महर्षि वाल्मीकि के तौर पर प्रसिद्ध हुआ। महर्षि वाल्मीकि ने हिन्दू धर्म की सबसे पवित्र पुस्तक रामायण की रचना की।
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महर्षि वाल्मीकि का असली नाम रत्नाकर था, लेकिन उन्होंने अपने जीवन में बदलाव एवं तपस्या के बल पर बाद में महर्षि वाल्मीकि के तौर पर पूरी दुनिया में प्रसिद्ध हुए।
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महर्षि वाल्मीकि जयंती अश्विन मास की शरद पूर्णिमा को मनाई जाती है। पौराणिक मान्यता के अनुसार उनका जन्म महर्षि कश्यप और अदिति के नौवें पुत्र वरुण और उनकी पत्नी चर्षणी के घर हुआ।
ऐसे बनें वाल्मीकि-
कहा जाता है कि रत्नाकर डाकू का जब हृदय परिवर्तन हुआ तो उन्होंने कड़ी तपस्या शुरू कर दी। लंबे समय तक तपस्या की वजह से उनके शरीर के चारों ओर दीमकों ने अपना बसेरा बना लिया। लेकिन रत्नाकर का ध्यान भंग नहीं हुआ। जब उनकी साधना पूरी हुई तो वह दीमकों के घर से बाहर निकले। चूंकि दीमकों के घर को वाल्मीकि कहा जाता है। इसलिए रत्नाकर को महर्षि वाल्मीकि के तौर पर जाना जाने लगा।
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दुनिया को प्रेम का संदेश:
महर्षि वाल्मीकि जी ने महाकाव्य रामायण के जरिए दुनिया को प्रेमए त्यागए बंधुत्व का संदेश दिया।
ऐसे हुआ हृदय परिवर्तन:
पौराणिक कथा के अनुसार एक बार जंगल में रत्नाकर डाकू (दस्यू) से नारद मुनि मिले तो डाकू रत्नाकर ने नारद मुनि को लूटने की बात कही। लेकिन इसके जवाब में नारद मुनि ने रत्नाकर से पूछा कि तुम यह कार्य किसलिए करते हो? रत्नाकर ने जवाब दिया कि वह अपने परिवार को पालने के लिए लोगों को लूटता है। तो नारद मुनि ने पूछा कि क्या तुम्हारे पापों का भागीदार तुम्हारे घरवाले बनेंगे? इस बात का जवाब जानने के लिए डाकू रत्नाकर ने नारद मुनि को पेड़ से बांधकर घर गया और परिजनों से पूछा, ” क्या उसके लूट के पाप में उसके परिजन भी भागीदार बनेंगे? लेकिन उसके परिजनों ने रत्नाकर के पाप में भागीदार बनने से मना कर दिया। परिजनों के मना करने से डाकू रत्नाकर स्तब्ध रह गया। वापस आकर वह नारद को सारी बातें बताई। तब नारद मुनि ने उन्हें ईश्वर से स्नेह लगाने का संदेश दिया। उन्हें भगवान राम के नाम जपने का संदेश दिया। लेकिन रत्नाकर ‘राम’ का उच्चारण नहीं कर पा रहे थे। तब नारद जी ने उन्हें मरा – मरा जपने को कहा और रत्नाकर मरा-मरा रटते-रटते राम-राम रटने लगे। और इस तरह कड़ी तपस्या और ईश्वर में ध्यान लगाने से रत्नाकर डाकू महर्षि वाल्मीकि बन गए।