बाराबंकी के देवा शरीफ में है हाजी वारिस अली शाह की दरगाह
-ऐतिहासिक पारिजात वृक्ष, कोटवा धाम, महादेवा मंदिर भी बाराबंकी के हैं प्रसिद्ध पर्यटन स्थल
Buddhadarshan News, Barabanki
उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से 25 km दूर महान सूफी संत ‘हाजी वारिस अली शाह की दरगाह’ स्थित है। यह दरगाह कौमी एकता का प्रतीक है। बाराबंकी जिले के देवा नामक कस्बे में स्थित इस दरगाह पर हिन्दू-मुस्लिम दोनों सिर झुकाने आते हैं और दुआएं मांगने हैं।
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इस धर्मिक स्थल पर हर साल क्वार माह में ऐतिहासिक मेले का आयोजन होता है, जहां भारत के कोने कोने से व्यापारी आते हैं। यह दरगाह लखनऊ से 22 किमी और बाराबंकी जिला मुख्यालय से 13 किमी की दूरी पर स्थित है। सामाजिक व्यक्ति एवं पत्रकार डॉ राजेश वर्मा कहते हैं कि पर्यटन के लिहाज से बाराबंकी एक संपन्न जिला है। यहां पर कौमी एकता का गवाह सूफी संत हाजी वारिस अलीशाह की दरगाह है तो पांडव कालीन पारिजात वृक्ष है।
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लोधेश्वर महादेव मंदिर (महादेवा):
पौराणिक कथा के अनुसार यह महाभारत कालीन भगवान भोलेनाथ का मंदिर है। यह रामनगर तहसील के महादेवा गांव में घाघरा नदी के किनारे स्थित है। अज्ञातवास के दौरान पांडवों ने इस मंदिर की स्थापना की थी। फाल्गुन महीने में यहां पर काफी बड़ा मेला का आयोजन होता है।
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इसे देव वृक्ष के नाम से जाना जाता है। पौराणिक कथा के अनुसार पांडव काल में बराह वन कहा जाता था। अज्ञातवास के दौरान पांडवों ने रामनगर के पास किंतूर क्षेत्र में इस वृक्ष को लगाया था।
पारिजात वृक्ष के पास ही कुछ दूरी पर यह मंदिर स्थित है। ऐसा माना जाता है कि जो भी इस वृक्ष के फूल को कुंतेश्वर महादेव मंदिर पर अर्पित करता है, उसकी मनोकामना पूरी होती है।
यह प्राचीन धार्मिक स्थल है। यहां पर मेड़न दास बाबा का मंदिर है।
समर्थ श्री जगजीवन साहेब दास का जन्म माघ शुक्ल पक्ष की सप्तमी को प्रात: काल सूर्योदय के साथ घाघरा तट पर स्थित ग्राम सरदहा में चंदेल वंशीय क्षत्रीय कुल के गंगाराम के यहां हुआ था। बाबा का जन्मोत्सव उनके लाखों अनुयायी बड़े ही हर्षोल्लास के साथ प्रतिवर्ष की तरह समाधि स्थल पर माथा टेक मनाने पहुंचे हैं। मान्यता है कि बाबा के जन्मोत्सव पर उनके दरबार में जो सतदीप (सच्चे मन से) जलाता है। उसके समस्त पाप मिट जाते हैं।
जिला मुख्यालय से 28 किमी दूर स्थित कस्बा सिदधौर का नाम सिदेश्वर महादेव के नाम पर पड़ा। यहां पर सोमवार व शुक्रवार को भक्तों की भीड़ होती है। कहा जाता है कि भगवान तथागत के पिता शाक्य वंशी राजा शुददोधन के मित्र राजा अजीत ने पुत्र प्राप्ति पर इस मंदिर का निर्माण कराया था।